स्वर्गलोक में भगत सिंह की प्रभु से जब मुलाक़ात हुई.
कुछ इधर-उधर की चर्चा , कुछ गहन विचार के उपरांत
भगवान् भगत से बोले, " भगते , तू है बड़ा शांत? "
"इस स्वर्गलोक में तुझे, क्या कोई परेशानी है?
क्या किसी ने तेरा अपमान किया? हुई मुझसे कुछ नादानी है ?
और आज तो तेरा दिवस है, हर कोई तेरा गुण गाता है,
फिर क्यूँ आज तेरा यह मन, खुद को इतना व्याकुल पाता है? "
कर जोर भगत बोले," प्रभु मुझको न यूँ लज्जित कीजे ,
मुझ तुच्छ प्राणी को न इंतनी आभा से आप सज्जित कीजे,
न मेरे साथ अन्याय हुआ, ना खुद को अपमानित पाता हूँ,
बस एक चिंता के समक्ष मैं नि:सहाय हो जाता हूँ ."
कुछ चकित हुए भगवान् बोले," ऐसी क्या विपदा आई है ?
बनकर जो घनघोर मेघ, तेरे मस्तक पर छाई है?
तू बोल मुझे, आज मैं किस संकट का संघार करूँ ?
किसपर रूद्र बनकर टूटूं ? या किसका मैं उद्धार करूँ ?"
सहमे हुए से भगत, हिम्मत जुटा कर यह बोले,
"महामहिम जो आप चाहें, धरती डोले अम्बर डोले,
पर नहीं आपसे आज मैं ऐसी कोई याचना करता हूँ,
ना किसी स्वार्थ की पूर्ति हेतु, मैं कोई प्रार्थना करता हूँ."
"सच है, आज शहीद दिवस पर, मेरा गुणगान तो होता है,
कुछ पुष्प तो डाले जाते हैं, किंचित सम्मान तो होता है.
पर नहीं मुझे इन पुष्पों, इन मालाओं की अभिलाषा है,
मुझको तो बस, हे प्रभो, भारत के उत्थान की आशा है."
"बस एक स्वप्न मैंने देखा , बस एक चाह यह मेरी है,
इस एक ध्येय को पाना है, बस एक राह यह मेरी है.
मेरे सपनों के भारत में, कोई भूखा ना सोता है,
ना ही जाड़े की रातों में अर्धनग्न विवश हो रोता है."
" इस स्वप्नलोक के भारत में, जाती का भेद न शेष बचा,
ना धर्म ही इसको बाँट सका, ना प्रान्तों में कोई क्लेश बचा.
इस भारत के वासी नहीं बस निज स्वार्थ साधते हैं,
मातृभूमि को माँ समझ, पूजते, आराधते हैं."
"इस एक स्वप्न को पूरा करने, मैंने जीवन अपना वार दिया,
हर सुख से मुख मोड़ लिया, हर मुश्किल को मैंने पार किया.
और एक दिन मेरे स्वदेश ने, मांगी जब मेरी आहुति,
मैं यज्ञाग्नि में कूद गया, न कढ़ी आह, उफ़ तक न की"
"यह आहुति इसलिए नहीं की मुझे अमर होना था ,
ना ही कुछ विश्राम हेतु मृत्यु-शय्या पर सोना था,
यह आहुति इसलिए की जिससे अग्नि और प्रज्ज्वलित हो,
मेरे अन्दर जल रही आग, हर अंतर में अवतरित हो"
"यह आहुति इसलिए की कल जब भारत पर संकट हो,
प्राकृतिक हो आपदा , या शत्रु ही कोई विकट हो.
या राजनीती के विषम भंवर में, भारत का भविष्य जब डोले,
तो भारत का हर एक युवा, एक स्वर में निडर हो बोले"
'हम डरते नहीं संकट से, हम डरते नहीं अंगारों से ,
हम पाट सकते हैं हर खाई, हम डरते नहीं दीवारों से.
हममे अब भी है वही आग की जिससे चिता भगत की ख़ाक हुई,
हर शहीद के बलिदान से, कुछ और पवित्र , कुछ पाक हुई.'
"पर, हे दीनानाथ , आज यह दिन कैसा आया है?
क्यूँ हर युवा के अंतर्मन में शंका की छाया है?
क्यूँ खुद पर विश्वास नहीं? क्यूँ देश पराया लगता है ?
क्यूँ हर कुछ एक ढोंग, कुछ बना-बनाया लगता है?"
"कहाँ गयी वह आग की जिससे भारत कुछ रोशन हो ?
जलकर जिसमे हर नौजवान का कुंदन-पवित्र अब मन हो.
कहाँ गयी वह ज्योति? कैसे बुझ गयी वह ज्वाला ?
क्या भरत-वर्ष में रहा नहीं, कोई उसे जलाने वाला ? "
"गर नहीं हो कोई, तो इस व्याकुलता का यूँ अंत करिए,
एक बार धरा पर फिर भेज, फिर से मुझे जीवंत करिए.
इस बार मुझे जीना है, और तब तक नहीं वहां से आऊंगा,
जब तक अपने सपनों का भारत, मैं धरती पर नहीं बसाऊंगा"